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OM KA UTPATI KAISE HUAA THA

ओम का उत्पत्ति (The Origin of Om)

परिचय:

ओम (ॐ) हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म और अन्य प्राचीन भारतीय धर्मों में एक अत्यंत महत्वपूर्ण और पवित्र ध्वनि है। यह न केवल एक धार्मिक प्रतीक है, बल्कि ब्रह्मांड के आधारभूत और सर्वव्यापी सत्य का प्रतिनिधित्व करने वाली ध्वनि के रूप में इसे माना जाता है। ओम की उत्पत्ति और उसका महत्व प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में व्याप्त है और यह शब्द ब्रह्मा, विष्णु, महेश (शिव), तथा अन्य देवताओं के प्रतीक के रूप में प्रयुक्त होता है। ओम को ‘प्रणव’ भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है ‘प्रणव शक्ति’ यानी सृष्टि का उद्घोषक ध्वनि।

इस लेख में हम ओम के उत्पत्ति, महत्व, और इसके विभिन्न पहलुओं को विस्तार से समझेंगे।


ओम का अर्थ

ओम एक विशेष ध्वनि है जो तीन अक्षरों से मिलकर बनी है – “अ” (अक्स), “उ” (उकार), और “म” (मकार)। यह ध्वनियां ब्रह्मांड के प्राथमिक और असीम शक्ति के प्रतीक मानी जाती हैं। ओम के बारे में कहा जाता है कि यह सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञान का प्रतीक है। इसका उच्चारण पूरी सृष्टि की ऊर्जा के प्रवाह से जुड़ा हुआ माना जाता है।

(अक्स) को सृष्टि या उत्पत्ति के रूप में देखा जाता है, (उकार) को पालन और स्थायित्व के रूप में और (मकार) को संहार और पुनर्निर्माण के रूप में देखा जाता है। जब इन तीनों ध्वनियों का उच्चारण एक साथ किया जाता है, तो यह ब्रह्मा के सृष्टिकर्म, विष्णु के पालन और महेश के संहार के चक्र को व्यक्त करता है।


ओम का सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व

ओम का धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व भारतीय दर्शन और धार्मिक परंपराओं में बहुत गहरा है। इसे ब्रह्मा, विष्णु और शिव के त्रैतीय शक्ति का प्रतीक माना जाता है। हिंदू धर्म के तीन प्रमुख देवताओं का संबंध ओम से जुड़ा हुआ है। इसके अलावा, ओम का महत्व बौद्ध और जैन धर्म में भी बहुत है।

हिंदू धर्म में ओम

हिंदू धर्म में ओम को सबसे पवित्र और आदिशब्द माना जाता है। यह ब्रह्म के अस्तित्व और परम सत्य के प्रतीक के रूप में देखा जाता है। वेदों और उपनिषदों में ओम का उल्लेख कई बार हुआ है। “ओम शांति शांति शांति” का मंत्र शांति और आंतरिक संतुलन की प्राप्ति का संकेत है।

वेदों में ओम का उल्लेख सबसे पहले “ऋग्वेद” में किया गया था। उपनिषदों में इसे ब्रह्म (सर्वव्यापी और निराकार परम सत्य) के रूप में परिभाषित किया गया है। मंडूक्य उपनिषद में ओम के महत्व पर विस्तार से चर्चा की गई है और कहा गया है कि ओम का उच्चारण और ध्यान करने से व्यक्ति को आत्मसाक्षात्कार और मुक्ति प्राप्त होती है।

बौद्ध धर्म में ओम

बौद्ध धर्म में ओम का महत्व थोड़ा अलग रूप में है। बौद्ध ग्रंथों में ओम का प्रयोग ‘ऊँ’ के रूप में किया गया है, जिसे ध्यान और साधना के समय उच्चारित किया जाता है। यह ध्यान केंद्रित करने और आत्मा की शुद्धता की ओर अग्रसर होने का एक तरीका माना जाता है। ओम के उच्चारण से मानसिक शांति और ध्यान की गहरी स्थिति प्राप्त होती है।

जैन धर्म में ओम

जैन धर्म में भी ओम का उल्लेख मिलता है। हालांकि ओम का इस धर्म में उतना प्रमुख स्थान नहीं है जितना हिंदू और बौद्ध धर्म में है, फिर भी ओम को ध्यान और साधना के एक महत्वपूर्ण हिस्से के रूप में स्वीकारा जाता है। जैन धर्म में ओम का उच्चारण आत्मा की शुद्धि के लिए किया जाता है।


ओम का वैज्ञानिक दृष्टिकोण

आध्यात्मिक दृष्टिकोण से परे ओम का वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी आकर्षक है। वैज्ञानिकों का मानना है कि ओम का उच्चारण ब्रह्मांड के कणों के समान ध्वनि तरंगों से मेल खाता है। जब हम ओम का उच्चारण करते हैं, तो हम उस सृष्टि के मूल कंपन में शामिल होते हैं जो ब्रह्मांड में व्याप्त है। http://www.alexa.com/siteinfo/sanatanikatha.com

मनुष्य के शरीर में ओम का उच्चारण करने से न केवल मानसिक शांति प्राप्त होती है, बल्कि शारीरिक रूप से भी इसका कई प्रकार से लाभ होता है। श्वास की गहरी गति और शरीर की ऊर्जा में संतुलन लाने के लिए ओम का उच्चारण किया जाता है। यह शरीर की आंतरिक ऊर्जा को उत्तेजित करता है और मानसिक स्वास्थ्य को बढ़ावा देता है।


ओम का इतिहास और उत्पत्ति

ओम की उत्पत्ति का कोई स्पष्ट ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है, लेकिन इसे प्राचीन वेदों और उपनिषदों में पाया जाता है। ओम के बारे में सबसे पहले उल्लेख ऋग्वेद और तैत्तिरीय उपनिषद में मिलता है। ओम का प्रयोग वेदों में उच्चारण, पूजा और साधना के रूप में किया जाता था।

ऋग्वेद में ओम का उल्लेख एक सार्वभौमिक ध्वनि के रूप में किया गया है जो पृथ्वी, आकाश और आकाशगंगा की सभी शक्तियों का प्रतीक है। इसका उपयोग मनुष्य के भीतर भगवान के रूप में उस अनदेखी शक्ति से जुड़ने के लिए किया जाता था। वेदों में ओम को विशेष रूप से शक्ति और शांति के लिए उच्चारित किया जाता था।

मंडूक्य उपनिषद में ओम के अर्थ पर विस्तार से चर्चा की गई है। इसे ब्रह्म (परम सत्य) के रूप में वर्णित किया गया है, जो जन्म, जीवन और मृत्यु के चक्र के साथ जुड़े हैं।


ओम का शास्त्रीय सिद्धांत

ओम का शास्त्रीय सिद्धांत उपनिषदों और वेदों में विस्तृत रूप से बताया गया है। इसे एक अत्यंत पवित्र ध्वनि के रूप में देखा जाता है जो संपूर्ण सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है। ओम का प्रत्येक स्वर ब्रह्मा, विष्णु और शिव के प्रतीक रूप में देखा जाता है।

मंडूक्य उपनिषद में इसे ‘अ’ (अक्स) ‘उ’ (उकार) और ‘म’ (मकार) के रूप में समझाया गया है। इन तीनों ध्वनियों का संयोजन ब्रह्मा, विष्णु और शिव की तात्त्विक स्थितियों को व्यक्त करता है। इसके अलावा, ओम को शुद्ध आत्मा, शांति और निराकार ब्रह्म के रूप में भी माना

ओम का उत्पत्ति और उसका निष्कर्ष

“ओम” (ॐ) भारतीय दर्शन और योग में एक अत्यंत महत्वपूर्ण और पवित्र ध्वनि है। इसे भारतीय संस्कृति में ब्रह्मा, विष्णु और महेश के त्रिमूर्ति के रूप में, साथ ही साथ ब्रह्म के प्रतीक के रूप में देखा जाता है। ओम का प्रतीक न केवल धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह एक अद्भुत ध्वनि और ऊर्जा के रूप में भी माना जाता है, जो सम्पूर्ण सृष्टि से जुड़ी हुई है। ओम के उत्पत्ति की खोज करना केवल उसकी ध्वनि या शब्द के अर्थ तक सीमित नहीं है, बल्कि यह उसके गहरे दर्शन, ब्रह्मांड के साथ उसके संबंध और मानव चेतना के स्तर पर भी विचार करने योग्य है।

ओम का ध्वनि एवं प्रतीकात्मक अर्थ:

ओम की ध्वनि को तीन मुख्य भागों में विभाजित किया जा सकता है:

  1. (A) – यह ध्वनि सृष्टि के उत्पत्ति का प्रतीक मानी जाती है। यह ब्रह्मा, सृष्टिकर्ता, के तत्व से जुड़ी हुई है और संसार की उत्पत्ति के आरंभ को इंगीत करती है।
  2. (U) – यह ध्वनि संरक्षण और पालन का प्रतीक है। यह भगवान विष्णु की ऊर्जा और उनके पालन का प्रतीक है।
  3. (M) – यह ध्वनि संहार और परिवर्तन का प्रतीक है। यह महेश, अर्थात् भगवान शिव के तत्व को दर्शाती है, जो संहार और पुनः निर्माण के प्रवृत्तियों से जुड़ी होती है।

इन तीनों ध्वनियों को मिलाकर ॐ का उच्चारण किया जाता है। इसके अलावा, ओम के उच्चारण के बाद मौन या ‘निर्वाण’ का तत्व होता है, जिसे “आ” (अर्थात अव्यक्त ब्रह्म) कहा जाता है। यह संपूर्ण ब्रह्मांड और अस्तित्व की परम, निराकार स्थिति को व्यक्त करता है।

ओम का दार्शनिक और धार्मिक महत्व:

ओम का महत्व केवल एक शब्द तक सीमित नहीं है, बल्कि यह भारतीय दार्शनिक दृष्टिकोण से ब्रह्मा, जीव और सृष्टि के संबंध को भी स्पष्ट करता है। वेदों में ओम को ब्रह्म के नाम से सम्बोधित किया गया है। ओम का उच्चारण परम तत्व की पहचान कराता है और इसको ध्यान, साधना तथा ध्यानावस्था के दौरान अव्यक्त चेतना से जुड़ा जाता है।

उपanishदों में ओम को ब्रह्म का सर्वोत्तम रूप माना गया है। यह एक ऐसा मंत्र है, जो सभी देवताओं, उनके गुणों और उनके कार्यों का प्रतिनिधित्व करता है। एक अत्यंत पवित्र शब्द होने के कारण ओम का जाप आत्मा को शुद्ध करने, मन को शांत करने और सर्वोच्च चेतना से जुड़ने में सहायक माना जाता है।

ओम का ब्रह्मांडीय दृष्टिकोण:

वेदों और उपनिषदों में ओम को ब्रह्मांड के सृजन, पालन और संहार से जोड़ा गया है। ओम को संसार के कण-कण में विद्यमान ब्रह्म के रूप में देखा जाता है। इसके उच्चारण से पूरे ब्रह्मांड की ऊर्जा और चेतना से संपर्क स्थापित किया जा सकता है। ओम के स्वर, आकार और उसकी ध्वनि की गहराई में ब्रह्मा, विष्णु और शिव की सत्ता समाहित मानी जाती है, जो यह दर्शाता है कि सृष्टि में जो भी परिवर्तन होते हैं, वे तीनों गुणों के कारण होते हैं।

ओम का विस्तार केवल मानव जीवन तक सीमित नहीं है, बल्कि यह संपूर्ण ब्रह्मांड के हर कण में व्याप्त है। ओम के उच्चारण के समय, यह परम सत्य की अनुभूति होती है, जो ब्रह्मा (सृष्टि), विष्णु (पालन) और महेश (संहार) के बीच संतुलन बनाए रखता है। यही कारण है कि ओम का महत्व केवल एक शब्द के रूप में नहीं बल्कि एक सर्वव्यापी सिद्धांत के रूप में है।

ओम का योग और ध्यान में महत्व:

ओम का गहरा संबंध योग और ध्यान से भी है। योग में ओम का जाप करने से शरीर और मन में संतुलन आता है, जिससे व्यक्ति को मानसिक शांति मिलती है। ध्यान के दौरान जब व्यक्ति अपने श्वास पर ध्यान केंद्रित करता है और ओम का जाप करता है, तो वह खुद को ब्रह्म के साथ एकाकार महसूस करता है।

ओम का उच्चारण मानसिक और शारीरिक दोनों ही दृष्टिकोण से लाभकारी माना जाता है। यह शरीर में सकारात्मक ऊर्जा का संचार करता है, मानसिक विकारों को दूर करता है और एकाग्रता बढ़ाता है। योगियों और साधकों के लिए ओम का मंत्र एक साधना है, जिसके द्वारा वे आत्मा की गहराईयों तक पहुँचने का प्रयास करते हैं।

ओम का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संदर्भ:

ओम का उल्लेख भारतीय ग्रंथों जैसे वेदों, उपनिषदों, भगवद गीता और पुराणों में बार-बार किया गया है। वेदों में ओम को “प्रणव” कहा गया है, जिसका अर्थ होता है “प्रेरणा देने वाला”। यह शब्द वेदों के मंत्रों और देवताओं के बारे में विचार करने का एक माध्यम बनता है। उपनिषदों में ओम को ब्रह्म के परम रूप के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जो साकार और निराकार दोनों रूपों में अस्तित्वमान है।

समय के साथ ओम का महत्व भारतीय संस्कृति और धर्मों के विभिन्न पहलुओं में समाहित हो गया। चाहे वह हिन्दू धर्म हो, बौद्ध धर्म हो, जैन धर्म हो या सिख धर्म, सभी में ओम का प्रयोग किसी न किसी रूप में देखने को मिलता है। ओम का प्रयोग पूजा-पाठ, मंत्र जाप, साधना और ध्यान में किया जाता है।

निष्कर्ष:

ओम केवल एक शब्द या ध्वनि नहीं है, बल्कि यह ब्रह्मांड के कण-कण में व्याप्त ब्रह्म का प्रतीक है। ओम का उच्चारण केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि यह व्यक्ति को ब्रह्म के परम सत्य से जोड़ने का एक मार्ग है। ओम का गहरा संबंध न केवल वेदों, उपनिषदों और धर्म से है, बल्कि यह भारतीय दर्शन, योग और ध्यान के मूल में भी स्थित है। ओम के माध्यम से साधक अपनी आत्मा और ब्रह्म के साथ एकाकार होने का प्रयास करता है, जिससे उसे शांति, सद्गति और आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है।

ओम के बारे में यह निष्कर्ष कहा जा सकता है कि यह एक ऐसा अद्वितीय और पवित्र शब्द है, जो सृष्टि के रहस्यों को समझने और जीवन के परम उद्देश्य की प्राप्ति के लिए मार्गदर्शन प्रदान करता है।

ओम की उत्पत्ति और इसका महत्व प्राचीन भारत के धार्मिक, दार्शनिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गहरे रूप में जुड़ा हुआ है। ओम न केवल एक पवित्र ध्वनि है, बल्कि यह ब्रह्मांड के उत्पत्ति, पालन और संहार के चक्र को व्यक्त करता है। ओम का उच्चारण मानसिक, शारीरिक और आध्यात्मिक उन्नति के लिए महत्वपूर्ण है। इसके द्वारा व्यक्ति आत्मा की गहराई तक पहुंच सकता है और ब्रह्म से मिलन का अनुभव कर सकता है। ओम का सिद्धांत न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से, बल्कि शारीरिक और मानसिक दृष्टिकोण से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।

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