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SANATANI DHARM KA AWISHAKAAR

संस्कृत में “सनातन धर्म” का अर्थ है “शाश्वत” या “अनन्त धर्म”। इसका कोई एक संस्थापक नहीं है, बल्कि यह धर्म हजारों वर्षों की संस्कृति, परंपराओं और जीवनदर्शन का समग्र रूप है, जो प्राचीन भारत में विकसित हुआ। सनातन धर्म की शुरुआत का कोई निश्चित समय नहीं है, और इसे मानव सभ्यता के साथ ही जोड़ा जाता है, जो इसे सबसे पुराना धर्म बनाता है। इसे हिंदू धर्म के नाम से भी जाना जाता है, और इसे प्राचीन ग्रंथों, वेदों, उपनिषदों, महाभारत, रामायण और पुराणों के माध्यम से जाना जा सकता है।

सनातन धर्म का निर्माण किसी एक व्यक्ति द्वारा नहीं किया गया, बल्कि यह ऋषियों, मुनियों और योगियों की विभिन्न शिक्षाओं का संकलन है। इन महान संतों ने प्रकृति, सृष्टि और आत्मा के तत्वों का अध्ययन किया और उन्हें अपने शिष्यों और आम जनता तक पहुंचाया। इस प्रक्रिया में सदियों तक ज्ञान का संचय और विस्तार होता रहा, जिसके परिणामस्वरूप सनातन धर्म का विस्तार हुआ।

सनातन धर्म का मूल विचार

सनातन धर्म का प्रमुख उद्देश्य मानव जीवन को प्रकृति और ईश्वर के साथ सामंजस्य में जीना है। इसके मुख्य सिद्धांतों में सत्य, अहिंसा, धर्म, कर्म और मोक्ष की प्राप्ति शामिल है। सनातन धर्म का मानना है कि हर आत्मा एक ही परमात्मा का अंश है और यह संसार एक अस्थायी पड़ाव है।

  1. सत्य – सत्य को सनातन धर्म का मुख्य स्तम्भ माना जाता है। इसका अर्थ है कि व्यक्ति अपने विचारों, वचनों और कर्मों में सत्य का पालन करें।
  2. अहिंसा – अहिंसा का सिद्धांत बताता है कि किसी भी जीव को क्षति पहुंचाना पाप माना गया है।
  3. धर्म – धर्म का अर्थ होता है कर्तव्यों का पालन करना। यह धर्म ही है जो समाज में शांति और स्थिरता का निर्माण करता है।
  4. कर्म – सनातन धर्म कर्म के सिद्धांत पर विश्वास करता है। व्यक्ति के द्वारा किए गए कर्मों का प्रभाव उसके वर्तमान और भविष्य पर पड़ता है।
  5. मोक्ष – मोक्ष का अर्थ है आत्मा का परमात्मा से मिलन। यह संसार से मुक्ति प्राप्त करने की अंतिम अवस्था मानी जाती है।

सनातन धर्म का विकास और इसका उद्देश्य

सनातन धर्म का विकास मानवता की आध्यात्मिक उन्नति और सत्य की खोज के उद्देश्य से हुआ। ऋषियों ने ध्यान और तपस्या के माध्यम से विभिन्न गूढ़ रहस्यों को जाना और समझा। उनके ज्ञान को वेदों, उपनिषदों, महाभारत, रामायण और पुराणों में संजोया गया। इन ग्रंथों में प्रकृति, विज्ञान, खगोल शास्त्र, आयुर्वेद, और आत्मा के रहस्यों का उल्लेख किया गया है, जिससे ज्ञात होता है कि सनातन धर्म केवल धार्मिक पहलुओं तक सीमित नहीं था, बल्कि इसमें विज्ञान और दर्शन का भी समावेश था।

  1. वेदों की रचना – सनातन धर्म के सबसे प्राचीन ग्रंथ वेद माने जाते हैं, जो लगभग 4000 वर्ष पुराने माने जाते हैं। ये चार वेद हैं – ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद। इन वेदों में मन्त्रों, कर्मकाण्डों, यज्ञों, और देवताओं की उपासना की विधियों का वर्णन किया गया है।
  2. उपनिषद – उपनिषद वेदों के अंतिम भाग हैं। इनका मुख्य विषय आत्मा और ब्रह्म का ज्ञान है। उपनिषद आत्मज्ञान, ध्यान, और आत्मा के स्वरूप की चर्चा करते हैं।
  3. महाकाव्य और पुराण – महाभारत, रामायण, और पुराणों के माध्यम से नैतिकता, आदर्श जीवन शैली, और जीवन के रहस्यों का वर्णन किया गया है।

सनातन धर्म का उद्देश्य और प्रासंगिकता

सनातन धर्म का उद्देश्य व्यक्ति को आत्मज्ञान और ईश्वर की प्राप्ति की ओर ले जाना है। यह धर्म समाज में समता, सहयोग, और शांति की स्थापना पर जोर देता है। सनातन धर्म ने ही हिंदू संस्कृति और भारतीय सभ्यता को आकार दिया है और इसे भारतीय जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है।

अंततः, सनातन धर्म किसी भी एक व्यक्ति या समय का निर्माण नहीं है; यह मानवता के उत्थान, आत्मज्ञान और प्रकृति के साथ सामंजस्य के विचारों का संग्रह है।

सनातनी धर्म में श्री कृष्णा अर्जुन को क्या होने वाला हैं वह सब कुछ जानते हैं क्युकी वह सब आचरण चंचलता के कारन सहज और दुर्गम चुनौती के अनुसार बदलना चाहता था , क्युकी मन की प्रबृति ही ऐसे होती हैं की इसको स्थिर करना कठिन हैं , क्युकी मन निरतर परिवर्तिन शील हैं | सत्रु सेना में निकट सम्बन्धियों तथा पूर्वजो के युद्ध के लिए एक मुद्रा में तैनात देखकर अर्जुन तुरंत इस सीमा तक बदल गए मनो वह अर्जुन रहे ही नहीं | http://www.alexa.com/siteinfo/sanatanikatha.com 

वह वीरता , वह जोश नजर ही नहीं आया और शोकग्रस्त मुद्रा धारण कर बोले मैं युद्ध नहीं करूँगा | अंतर्यामी श्री कृष्णा हँसते हुए इस समय जो बचन बोले वही गीता का सार सारांश हैं | अत इसका संक्षिप वर्णन जरुरी हैं | भगवान बोले , हे अर्जुन तुम्हे इस असमय में यह मोह किस कारन प्राप्त हुआ हैं ? यह अन्याय , स्वर्ग अवरोधक और अपयशदायक हैं |

नपुंसकता को मत प्राप्त हो तुझमे यह उचित नहीं लगता | हे पार्थ ! ह्रदय की तुछ्या दुर्वलता को त्याग कर उठो और युद्ध कोरो , आगे जाकर अर्जुन बोले , कृपणता रूप दोष से अपह्त हुए स्वभाव वाला तथा धर्म के बारे में मोच्छित हुआ में आपसे पूछता हूँ की जो निश्चित कल्याण करक हैं , वह मुझसे कहिये – में आपका शिष्य हूँ |

इसलिए आपके शरणागत में मुझे शिक्षा दीजिये | पृथिवी में निष्कंटक समृद्ध राज्य को और देवताओ और अधिपति को भी प्राप्त करके जो मेरी इन्द्रियों को सूखने वाले शोक को समाप्त करे | ऐसा उपाय में नहीं देखता श्री कृष्णा बोले तुम अशोच्या लोग के लिए शोक करते हो और पंडित की तरह बातें करते हो पंडित तो मरे हुए तथा जीवित दोनों के लिए शोक नहीं करते |

और न तो ऐसा हैं की में किसी काल में नहीं था , तुम नहीं अथवा यह महाराज लोग नहीं थे और न ही ऐसा हैं की इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे वास्तव में असत का अस्तित्व नहीं हैं , सात का नाश नहीं हैं | तत्वा दर्शियों इन दोनों का ही स्वरुप देखा हैं | सनातनी धर्म में गीता में श्री कृष्णा भगवान् ने अपने उपदेश का उट्घाटन मोह और शोक दोनों निशाना साध कर लिया हैं |

क्युकी अर्जुन इन दोनों से ग्रस्त हैं , अर्जुन ही क्या सारा संसार ही इन दोनों की लपेट में रहता हैं | मोह ही माया हैं , माया से तातपर्य जो मनुष्य को वास्तविकता का ज्ञान नहीं होने देती यही प्रकृति हैं जो 24 तत्व , तीन गुणों और द्वन्द की बनी हैं | यह माया ही मनुष्य और ईश्वर के बिच हिमालय बनकर खाड़ी हैं | यही अज्ञान का पर्दा हैं |

यही हमें शोक ग्रस्त रखते हैं , वास्तव में मनुष्य का मन ही माया हैं , यह हमेशा चंचलता के कारन बदलती रहती हैं , अनुकूलता को पाकर भी दुखी रहता हैं |

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