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SHIV KO SANGHAR KARTA KYU KAHA JATA HAIN

भगवान शिव को संहारक क्यों कहा जाता है?

भगवान शिव हिन्दू धर्म के त्रिदेवों में एक प्रमुख देवता हैं, जिनका अस्तित्व, प्रभाव, और पूजा की विविधताएँ हिन्दू धर्म के अनुयायियों के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। भगवान शिव को संहारक (Destroyer) कहा जाता है, और यह विशेषण उनके विविध रूपों, कार्यों, और संसार में उनके योगदान को स्पष्ट करने के लिए प्रयुक्त किया जाता है। भगवान शिव का यह रूप, उनके अन्य रूपों के साथ ही, सम्पूर्ण सृष्टि के चक्र को समझने में मदद करता है।

भगवान शिव का संहारक रूप केवल किसी को नष्ट करने का कार्य नहीं करता, बल्कि यह सृष्टि के पुनर्निर्माण के लिए आवश्यक है। उनके संहारक रूप को सही रूप में समझने के लिए हमें उनके कार्यों, उनके गुणों, और उनके देवत्व की गहरी समझ होना चाहिए। इस लेख में, हम यह जानेंगे कि भगवान शिव को संहारक क्यों कहा जाता है, उनके संहारक रूप का महत्व, और इसके पीछे का तात्त्विक एवं धार्मिक आधार क्या है।

भगवान शिव का रूप और उनके गुण

भगवान शिव का स्वरूप बहुत ही विशिष्ट और गहरा है। वे त्रिदेवों में से एक हैं, जो ब्रह्मा (सृष्टि के रचनाकार), विष्णु (पालक) और शिव (संहारक) के रूप में कार्य करते हैं। प्रत्येक देवता का एक विशेष कार्य है जो सृष्टि के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए आवश्यक है। जहां ब्रह्मा सृष्टि का निर्माण करते हैं और विष्णु उसे संरक्षित करते हैं, वहीं शिव का कार्य उसे संहार कर पुनर्निर्माण के लिए तैयार करना होता है।

भगवान शिव को संहारक कहा जाता है, क्योंकि उनका कार्य है सृष्टि की अव्यवस्था और दुराचारों को समाप्त करना। वे अपनी तात्त्विक दृष्टि से सृष्टि के हर रूप में प्रकट होते हैं और संसार के दोषपूर्ण भागों का संहार करते हैं। उनका संहार केवल भौतिक रूप से नष्ट करने का कार्य नहीं है, बल्कि यह सृष्टि के पुनर्निर्माण के लिए आवश्यक होता है।

शिव के संहारक रूप का महत्व इस दृष्टिकोण से है कि यह जीवन के चक्र को संतुलित करता है। जब संसार में असमंजस, अधर्म और अराजकता बढ़ जाती है, तो भगवान शिव स्वयं अपने तीसरे नेत्र (आज्ञा चक्षु) से उस असंतुलन का संहार करते हैं। इसके द्वारा वह न केवल नष्ट करते हैं, बल्कि एक नई शुरुआत की दिशा भी निर्धारित करते हैं।

भगवान शिव का संहारक रूप

भगवान शिव के संहारक रूप की कई परिभाषाएँ और व्याख्याएँ हिन्दू धर्म के ग्रंथों में मिलती हैं। वे न केवल आक्रामक रूप से संहारक होते हैं, बल्कि उनका संहार एक चिरस्थायी परिवर्तन लाने के लिए होता है। भगवान शिव के संहारक रूप को समझने के लिए उनके विभिन्न पहलुओं को देखना आवश्यक है।

1. कालभैरव रूप

भगवान शिव के संहारक रूप में सबसे प्रसिद्ध रूप कालभैरव है। कालभैरव को मृत्यु और संहार का देवता माना जाता है। यह रूप दिखाता है कि भगवान शिव केवल नश्वर संसार के अंत को ही नहीं लाते, बल्कि वह उन पापों और अधर्म का भी संहार करते हैं जो इस संसार में विकृति और संकट का कारण बनते हैं। कालभैरव का रूप किसी भी प्रकार की धार्मिक और सामाजिक अराजकता के समूल नष्ट होने का प्रतीक है।

2. भैरव और रुद्र रूप

भगवान शिव का रुद्र रूप भी संहारक रूप के रूप में प्रकट होता है। रुद्र का अर्थ है ‘वह जो क्रोधित होकर संहार करता है’। रुद्र के रूप में भगवान शिव का क्रोध विश्व में अत्याचार और दुष्कर्मों के खिलाफ न्याय करने का रूप होता है। रुद्र रूप में भगवान शिव विशेष रूप से असत्य, पाप और दुराचार का संहार करते हैं।

3. नटराज रूप

भगवान शिव का नटराज रूप संहारक के साथ-साथ रचनात्मक भी होता है। नटराज रूप में वे तांडव नृत्य करते हुए सृष्टि के अंत और पुनः निर्माण की प्रक्रिया को दर्शाते हैं। यह नृत्य केवल नष्ट करने का नहीं है, बल्कि यह एक चक्रीय प्रक्रिया है, जिसमें संहार और सृजन दोनों का सामंजस्य होता है।

4. धनुषधारी रूप

भगवान शिव धनुषधारी रूप में भी संहारक के रूप में प्रकट होते हैं। इस रूप में शिव अपने धनुष से संसार के राक्षसों, दुष्टों और पापियों का संहार करते हैं। इस रूप में भगवान शिव का उद्दीपन यही होता है कि हर दुष्टता और अन्याय का अंत अवश्य होगा।

शिव का संहारक रूप: धार्मिक और तात्त्विक दृष्टिकोण

भगवान शिव के संहारक रूप का एक गहरा तात्त्विक अर्थ है। यह रूप केवल भौतिक संहार का नहीं है, बल्कि यह जीवन और मृत्यु के चक्रीय रूप को समझाने का एक प्रयास है।

1. सृष्टि का चक्रीय रूप

हिन्दू धर्म में संसार को एक चक्रीय प्रक्रिया के रूप में देखा जाता है, जिसमें जन्म, जीवन, मृत्यु और पुनर्जन्म का सिलसिला निरंतर चलता रहता है। भगवान शिव का संहारक रूप इस चक्र का एक आवश्यक हिस्सा है। जब संसार में किसी भी तरह का असंतुलन, अधर्म या भ्रष्टाचार बढ़ता है, तो भगवान शिव का संहारक रूप प्रकट होता है। उनका संहार उस अनचाहे तत्व को नष्ट करता है ताकि सृष्टि के चक्र को फिर से संतुलित किया जा सके।

2. पुनर्निर्माण और परिपूर्णता

भगवान शिव का संहारक रूप न केवल नष्ट करने वाला होता है, बल्कि यह पुनर्निर्माण का भी रूप होता है। जैसे पुराने पौधों और पत्तों के गिरने से नई पत्तियाँ और जीवन उगता है, वैसे ही शिव का संहार सृष्टि के पुनर्निर्माण के लिए आवश्यक होता है। यह दिखाता है कि नष्ट करना और सृजन दोनों का साथ होता है। https://www.reddit.com/search?q=sanatanikatha.com&sort=relevance&t=all 

3. अधर्म और पाप का संहार

भगवान शिव का संहारक रूप मुख्य रूप से पाप, अधर्म, और दुष्टता के संहार से संबंधित है। जब संसार में दुष्टों की बढ़ती संख्या और उनके अत्याचारों से संतुलन बिगड़ता है, तब भगवान शिव की भूमिका एक आक्रामक शक्ति के रूप में होती है। उनका संहार उन नकारात्मक शक्तियों को समाप्त करता है, जिससे धर्म और सत्य की पुनर्स्थापना होती है।

4. आध्यात्मिक दृष्टिकोण

भगवान शिव का संहारक रूप आध्यात्मिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। यह रूप व्यक्ति के भीतर के अव्यक्त, नकारात्मक और अशुद्ध विचारों का संहार करता है। आत्मा की शुद्धि और परमात्मा की प्राप्ति के लिए यह रूप आवश्यक होता है। भगवान शिव का संहारक रूप यह सिखाता है कि व्यक्ति को अपने भीतर के अज्ञान, अहंकार, और मोह का संहार करके आत्मा के वास्तविक स्वरूप को पहचानना चाहिए।

भगवान शिव को “अनादी” क्यों कहा जाता है, इसका उत्तर हमें शिव के स्वरूप, उनके अस्तित्व, और ब्रह्मांड के निर्माण और संहार के संदर्भ में समझना होगा। भगवान शिव हिन्दू धर्म के त्रिदेवों में से एक हैं और उनकी विशेषताएँ अन्य देवताओं से बिलकुल अलग हैं। शिव का संबंध केवल सृजन से नहीं बल्कि संहार और पालन से भी जुड़ा हुआ है। वे एक अद्वितीय और सर्वशक्तिमान देवता हैं जिनका कोई प्रारंभ या अंत नहीं है। इसलिए उन्हें “अनादी” (जिसका कोई प्रारंभ नहीं होता) कहा जाता है।

1. शिव का “अनादी” स्वरूप

“अनादी” शब्द संस्कृत के “अ” (नहीं) और “आदि” (प्रारंभ) से मिलकर बना है, जिसका अर्थ होता है “जिसका कोई प्रारंभ नहीं हो”। भगवान शिव को अनादी कहा जाता है क्योंकि उनका अस्तित्व समय और स्थान के परे है। वे न तो उत्पन्न होते हैं और न ही उनका कोई अंत होता है। उनका स्वरूप एक निराकार ब्रह्म के समान है, जो अनंत और सर्वव्यापी है।

शिव के “अनादी” होने का मतलब यह है कि वे सृष्टि के आरंभ से पहले थे, वे सृष्टि के बीच में हैं, और वे सृष्टि के बाद भी अस्तित्व में रहेंगे। वे सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान हैं, इसलिए उनका कोई निश्चित प्रारंभ या अंत नहीं है। इस दृष्टिकोण से भगवान शिव एक अद्वितीय और अनंत सत्ता के रूप में देखे जाते हैं।

2. शिव के अद्वितीय गुण

भगवान शिव का कोई निश्चित रूप नहीं है। वे निराकार ब्रह्म हैं और साथ ही साकार रूप में भी प्रकट होते हैं। उनका एक रूप भगवान शिव के रूप में है, जो त्रिशूलधारी, नंदी वाहन, गंगा धारण करने वाले और भस्म से सजे हुए हैं। यह रूप उनके महाशक्तिमान और महाकाल रूप को दर्शाता है, जो सृष्टि के अंत के समय संहार करते हैं। इसी कारण उन्हें “काल” और “Mahakaal” भी कहा जाता है, क्योंकि उनका कार्य संहार के रूप में होता है, जो एक चक्र के रूप में सृष्टि की पुनरावृत्ति को सुनिश्चित करता है।

इस प्रकार भगवान शिव के साथ समय का कोई बंधन नहीं है। वे काल के परे हैं, इसलिए उन्हें “अनादी” कहा जाता है। उनका कोई निश्चित आरंभ और अंत नहीं है, क्योंकि वे ब्रह्मांड के प्रारंभ से पहले से ही थे।

3. शिव का निराकार रूप

भगवान शिव का निराकार रूप भी उनके “अनादी” होने को दर्शाता है। वे निराकार रूप में “अहं ब्रह्मास्मि” (मैं ब्रह्म हूँ) की अवस्था में होते हैं। वे न तो किसी विशेष रूप में बंधे हुए हैं और न ही किसी स्थान या समय से। उनका अस्तित्व निराकार और अनंत है, जो समय की सीमा से परे है।

शिव का यह निराकार रूप एक अद्वितीय अनुभव है, जो व्यक्ति को आत्मज्ञान और ब्रह्मा के अस्तित्व का अहसास कराता है। इस निराकार रूप को “पारब्रह्म” या “सर्वशक्तिमान शिव” के रूप में जाना जाता है, जो न केवल ब्रह्मांड की सृष्टि, पालन और संहार में सहायक होते हैं, बल्कि वे प्रत्येक जीव के भीतर भी स्थित होते हैं। इस रूप में भगवान शिव न समय के अधीन होते हैं, न किसी स्थान के अधीन होते हैं, और न ही किसी तत्व से बंधे होते हैं।

4. शिव का “काल” और “महाकाल” रूप

भगवान शिव का एक अन्य रूप “महाकाल” के रूप में प्रकट होता है। यह रूप समय के पार और शाश्वत अस्तित्व का प्रतीक है। महाकाल भगवान शिव के संहारक रूप को दर्शाता है, जो सभी जीवों और सृष्टि के अंत के समय प्रकट होते हैं। यह रूप यह बताता है कि समय (काल) भी भगवान शिव के अधीन है, और भगवान शिव स्वयं काल से परे हैं। महाकाल रूप में शिव के अनादि और अनंत होने का बोध होता है, क्योंकि महाकाल का कोई प्रारंभ नहीं होता है और न ही कोई अंत।

महाकाल के रूप में भगवान शिव, समय को नियंत्रित करने वाले होते हैं, और समय के अंत के समय उनका संहार रूप प्रकट होता है। यह संकेत करता है कि शिव समय से भी परे हैं, और उनका अस्तित्व कालातीत है। इसी कारण उन्हें अनादी और महाकाल कहा जाता है।

5. शिव और सृष्टि के चक्र

भगवान शिव के “अनादी” होने का एक और कारण सृष्टि के चक्र से जुड़ा है। शिव के सृजन, पालन और संहार के कार्यों के माध्यम से सृष्टि का चक्र चलता है। भगवान शिव ब्रह्मांड की सृष्टि के आरंभ में “सृजन” करते हैं, फिर “पालन” के रूप में वह जीवन के उत्थान में सहायक होते हैं, और अंत में “संहार” के रूप में वह सृष्टि के अंत को सुनिश्चित करते हैं। इस चक्र के माध्यम से सृष्टि निरंतर चलती रहती है।

इसलिए शिव का अनादी होना यह भी दर्शाता है कि सृष्टि का प्रारंभ और अंत उनके द्वारा किया जाता है, लेकिन वे स्वयं इस चक्र से परे होते हैं। वे समय और सृष्टि के बाहर होते हुए भी हर क्षण में सक्रिय रहते हैं। यह समझने के लिए हमें भगवान शिव के चतुर्भुज स्वरूप, उनके त्रिशूल और उनके अन्य प्रतीकों का अध्ययन करना होता है।

6. शैव मत में भगवान शिव का अनादी रूप

शैव मत में भगवान शिव को सर्वश्रेष्ठ देवता माना जाता है, और उनका अनादी रूप सर्वत्र प्रतिष्ठित है। शैव दर्शन में शिव को निराकार, अनंत और कालातीत माना गया है। वह ब्रह्मा, विष्णु और अन्य देवताओं से भी श्रेष्ठ माने जाते हैं क्योंकि उनका कोई प्रारंभ या अंत नहीं होता। वे अव्यक्त हैं, और उनका कोई शारीरिक रूप नहीं होता है। उनके अनादी रूप में एक महानतम सत्य छिपा हुआ है, जो सभी जीवों और सृष्टि के लिए है।

निष्कर्ष

भगवान शिव को संहारक के रूप में देखना केवल एक बाहरी कार्य नहीं है, बल्कि यह सृष्टि के चक्रीय रूप, धर्म की पुनर्स्थापना और आत्मा की शुद्धि का प्रतीक है। उनका संहारक रूप यह संदेश देता है कि नष्ट करना और पुनर्निर्माण दोनों एक दूसरे के पूरक होते हैं। हर नष्ट होने वाली वस्तु के बाद कुछ नया उत्पन्न होता है, और इस प्रकार भगवान शिव की भूमिका संसार के प्राकृतिक और आध्यात्मिक चक्र को संतुलित करने में अत्यंत महत्वपूर्ण है।

भगवान शिव का संहारक रूप न केवल संसार के बाहरी तत्वों का संहार करता है, बल्कि यह जीवन के आंतरिक और आध्यात्मिक जगत में भी नये सृजन की दिशा निर्धारित करता है। उनके संहारक रूप का वास्तविक अर्थ तब समझ में आता है जब हम इसे जीवन के चक्र, आत्मा की शुद्धि, और संसार के पुनर्निर्माण के संदर्भ में देखते हैं।

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